Rakta Mokshan:- Rakta mokshna चिकित्सा विधि ध्यान से पढ़िए ताकि Rakta mokshna चिकित्सा करने में आपको आसान लगे। यदि रक्त गत व्याधि कीसी प्रकार के चिकित्सा से ठीक नहीं हो रही है तो Rakta mokshna चिकित्सा कंपलसरी करना चाहिए Rakta mokshna चिकित्सा विधि द्वारा शरीरगत रक्त की अशुद्धि से होने वाली सभी प्रकार के चर्म रोग, प्लीहा, गुल्म, वातरक्त, अर्श, रक्तपित्त जैसे बड़े-बड़े व्याधि Rakta mokshna रक्तमोक्षण चिकित्सा द्वारा ठीक किया जा सकता है।
Rakta mokshna :-आज के समय में लोग रोगी के शरीर, दोष,बल तथा अन्य भी Rakta mokshna रक्तमोक्षण हेतु बताया गया विचारों को ध्यान में रखे बगैर ही सिर्फ शरीर से खून निकालना ही Rakta mokshna रक्तमोक्षण समझते हैं। इसलिए ऐसे लोग जिन्होंने चिकित्सा करने की ठान ही लिया तो उनको साधारण भाषा में Rakta mokshna रक्तमोक्षण कैसे किया जाए, रक्तमोक्षण क्यों करना चाहिए , रक्तमोक्षण कब करना चाहिए, और Rakta mokshna रक्तमोक्षण किससे करना चाहिए जैसे बहुत सारे आयुर्वेदिक ग्रंथ तथा गुरु शिष्य परंपरागत अनुभवगम्य प्रामाणिकRakta mokshna चिकित्सा विधि से संबंधित कुछ बहुत ही खास विषय को लिखने का प्रयास कर रहा हूं। यदि आप Rakta mokshna में प्रयोग किए जाने वाले विभिन्न वस्तुओं से Rakta mokshna करते हैं तो कृपया इस साधारण भाषा में लिखे गए इस लेख को एक बार जरूर पढ़े।
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वाग्भट ने पंचकर्म चिकित्सा विधि के अंतर्गत रक्त धातु में स्थित अनेक विध दोष शांति के लिए जो Rakta mokshna bidhi बताया है ।उसमे अनेक आचार्यों ने भी अलग-अलग विधि से शरीर द्वारा ब्लड को निकालने वाली Rakta mokshna कर्म पद्धति बताया है। जैसे जलौका, क्षार, दाहकर्म, काच, नख, पत्थर, आदि अलौह वस्तु द्वारा या इनके सदृश अन्यों की कल्पना कर बुद्धिपूर्वक Rakta mokshna द्वारा रोगी का उपचार करने को कहा है.।
How many types of Rakta mokshana Karma are there
Rakta mokshna के चार अवस्था।
1. रक्तमोक्षणार्थ Rakta mokshna किया जाता है।
2.दोष के अवस्थानुसार Rakta mokshna होता है।
3. रक्त के अवस्थानुसार Rakta mokshna होता है।
4.आतुर के अवस्थानुसार Rakta mokshna होता है।
आयुर्वेदिक ग्रंथों में Rakta mokshna के लिए दो तरीका बताया है उसमें से एक है शस्त्र विस्त्रारण और दूसरे का नाम है अनुशस्त्र विस्त्रावण आइए इन दोनों से संबंधित जानकारी के ऊपर चर्चा करेंगे।
शस्त्र विस्त्रारण के अंतर्गतRakta mokshna का दो विधि बताया गया है जिसमें से एक का नाम है प्रच्छान कर्म और दूसरे का नाम है सिराव्यध कर्म अव इन दोनों के ऊपर साधारण भाषा में समझने का प्रयास करेंगे।
प्रच्छान कर्म क्या है।
इसमें नीडल से शरीर को हल्का हल्का चुभाया जाता है। प्रच्छान कर्म अक्सर ऐसी जगह में करना होता है जहां त्वचा की ऊपरी सतह में दोष एकत्रित हो जाएं । वहुधा आपने सिर से बाल उगाने के लिए नीडल द्वारा थोड़े-थोड़े ब्लड निकालते देखे होंगे यही है प्रच्छान कर्म।
सिराव्यध इसमें नीडल से शरीर को छेद कर ब्लड बाहर निकाला जाता है। इन दिनों सिराव्यध कर्म का प्रचलन अधिक है। आपने अक्सर मांथे से या किसी और जगह से काफी ज्यादा संख्या में खून को निकालते जरूर देखे होंगे यही है सिराव्यध कर्म।
Rakta mokshnaअनुशस्त्र विस्त्रावण विधि भी शरीर गत रक्त दोष शुद्धि के लिए बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करता है। रक्तमोक्षण अनुशस्त्र विस्त्रावण विधि द्वारा Rakta mokshna रक्तमोक्षण हेतु प्रयोग किए जाने वालेद्वाराRakta mokshna हेतु प्रयोग किए जाने वाले इन चारों वस्तुओं का कहां कब और किन परिस्थितियों में उपयोग में लिया जाए इसका निर्णय रोग परीक्षण के बाद ही होना चाहिए ऐसा नहीं की हर किसी रोगी में श्रृंग ही लगा रहे हैं या सभी को लीच थेरेपी ही कर रहे हैं आइए इसको विस्तार से समझते हैं। सबसे पहले यह देखिए की अनुशस्त्र विस्त्रावण मैं प्रयोग किए जाने वाले अस्त्र का नाम और पहचान कैसे करें।
श्रृंग- बकरे या गाय का श्रृंग से बनता है।
जलौका- लीच (जोंक) नाम का कीड़ा
अलाबु- इसको तुम्वी भी कहते हैं यह पेठा से बनता है।
घटीयंत्र - इसमें मिट्टी के घड़े का प्रयोग किया जाता है। घटी का मतलब घड़ा होता है।
जिस रक्त में प्रधानता वात से दुष्टि हुई हो उसका निर्हरण शृंग से करना चाहिये। क्योंकि गाय का सींग उष्ण मधुर और स्निग्ध होता है जो वात के शीत और रुक्ष गुण के विपरीत है, तथा मधुर रस वातशामक होता है। जिस रक्त की दृष्टि प्रधानतया-पित्त से होती है उसका निर्हरण जलौका से करे, क्योंकि जलौका जल में रहने से शीत, मधुर होती है, और उष्ण कटु पित्त के निर्हरण के लिए प्रशस्त होती है। जिस रक्त में प्रधानतया कफ से दृष्टि होती है, उसे अलाबु (तुंबी) से निकाले, क्योंकि अलाबु रस में कटु और गुण में रुक्ष और तीक्ष्ण होता है। ये गुण कफ के मधुर, शीत, स्निग्ध के विपरीत होते हैं।
वाग्भट ने कहा है कि पित्त दूषित रक्त को अलाबु या घटीयंत्र से नहीं निकालना चाहिये। क्योंकि इनमें अग्नि के उष्ण गुण का संयोग होता है, अतएव कफ और वातदुष्ट रक्त को निकालने में ये बहुत ही अच्छा होता है। कफदुष्ट रक्त का निर्हरण श्रृंग से न करें, क्योंकि वह रक्त को जमा देता है। श्रृंग से वातपित्त दुष्ट रक्त निकालना चाहिए। यह रक्त दोष-विचार विशेषावस्था में करें, अथवा सामान्यावस्था में भी सभी का उपयोग सभी में किया जा सकता है। रक्तमोक्षण करते वक्त शास्त्र द्वारा बताएं विधि को इग्नोर कभी भी नहीं करना चाहिए जैसे रक्तमोक्षण चिकित्सा करने से पहले रक्तमोक्षण का रोगी योग्य है या नहीं इसको देखना है, अक्सर रक्तक्षय, गर्भिणी आदि बहुत सारे व्याधियों में रक्तमोक्षण चिकित्सा हानि पहुंचाता है। Rakta mokshna रक्तमोक्षण चिकित्सा का पूर्व कर्म और पश्चात कर्म के ऊपर विशेष ध्यान रखना है। इन सभी विधि के ऊपर हम विस्तार से चर्चा कर रहे हैं।
Rakta mokshna करने वाले चिकित्सकों को यह जानना बहुत जरूरी है कि कौन सा सिरा भेदनीय है और कौन सा सिरा अवेध्य है। क्योंकि संपूर्ण शरीर में वातवह, पित्तवह, कफवह, रक्तवह 3:00 के 175 शाखाएं हैं कुल मिलाकर 700 सिराएं शरीर में बताया जाता है।
वात को वाहन करने वाली सिराको अरुणा कहा जाता है। सभी प्रकार की चेष्टा,बुद्धि, इंद्रिय और ज्ञानेंद्रियों के कर्मों में व्यवस्थित ज्ञान प्रवृत्ति कराना इसी शिरा का कार्य है। वात वृद्धि होने के बाद वायु का प्रभाव इसी शिरा में पड़े तो बुद्धि चेष्टा इंद्रियां और मन के ऊपर ज्यादा विचलित पैदा करता है।
पित्त को वहन करने वाली सिराओं को नील कहा जाता है। इसको vein समझा जा सकता है। अग्नि प्रदीप, अन्न पान में रुचि, और शरीर वर्ण को प्रसन्न रखना इस का काम है। रक्त, पित्त और हृदय इन तीनों का समवाय संबंध रहता है। इस शिरा का भेदन होने पर हृदय में खून की कमी पड़ जाता है। इसीलिए यह अभेद्य सीरा है ।
कफ बहने वाली सिराको गौरी कहा जाता है। स्निग्ध,शीत,और स्थिर कर्म इसी से होता है। कफ प्रकोप होने पर इसी में समस्या होती है।
चौथी शिरा का नाम है रोहिणी जो केवल सुद्ध रक्त को लेकर चलता है | इसी को कुछ लोग artery भी कहते हैं। ऑक्सीजन इसी सिरा से चलता है। धातुओं का पोषण करना, वर्ण को उज्जवल करना और असंदिग्ध स्पर्श ज्ञान करना इसका काम है ।जब इसमें प्रकोप होता है तो रक्त से संबंधित व्याधि होती है। यह सभी शिराएं अभेद्य है। इसी प्रकार शाखा में कुल 400 सिरायें होती है इसमें से अभेद्य सिराओं की संख्या 16 है।
रोगानुसार जिस-जिस शिरा का बेध करने के लिए शास्त्रों ने बताया है उसका कुछ विवरण यहां दिया जा रहा है यूं समझ लीजिए विकृति जिस अधिष्ठान में है उस अधिष्ठान से आगे जाने वाली सिरा का ऊपर के भाग में सिरा बेध करना चाहिए
ताकि दुष्ट दोषों का अन्यत्र फैलने से रोका जा सके।
1=पैर में जलन, हर्ष, अबबाहुक, चिप्प, बिसर्प,विचर्चिका, पाददारि,वात कंटक।
बेध्य सिरा-क्षिप्र मर्म के 2 उंगली ऊपर की सिरा में रक्तमोक्षण करें।
2 =क्रोष्ठुक शीर्ष खंज,पंगु,वात वेदना,सक्थिशूल,
बेध्य सिरा-जंघा में गुल्फ के चार अंगुल ऊपर से रक्तमोक्षण करें।
3.गृध्रसी
बेध्य सिरा-=जानू संधि के ऊपर या नीचे चार अंगुल पर से रक्तमोक्षण करें।
4.विश्वाची
कूर्परसंधि के चार अंगुल नीचे या ऊपर से रक्तमोक्षण करें।
5=अपची
बस्ति मर्म के दो अंगुल नीचे (जंघा में)
6=गलगंड
उरुमूल में रहनेवाली सिरा उरुणा शिरा का बेधन करे।
7=प्लीहा रोग
वामबाहु में कूर्पर संधि की सिरा का अथवा कनिष्ठिका और अनामिका के बीच में स्थित सिरा का भेदन करें।
8=फैटी लीवर,कफोदर,कास,श्वास
दक्षिणबाहु में कर्पूर के पास या दक्षिण अनामिका और कनिष्ठिका अंगुली के बीच की सिरा में भेदन करें।
9=प्रवाहिका,शूल,
श्रोणि के पास दो अंगुल की सिरा से रक्तमोक्षण करें।
10=परिकर्तक,उपदंश,शुक्रदोष, शुक्र रोग,
मेठ्र स्थित सिरा से रक्तमोक्षण करे
11=मूत्र वृद्धि
वृषण के पीछे की सिरा
12=जलोदर
वामपार्श्व में नाभि के नीचे चार अंगुल पर
13=अंतविद्रधि,पार्श्वशूल
पार्श्व, कक्षा तथा स्तनों के बीच की सिरा
14=बाहु शोष,अवबाहुक
दोनों अंस के बीच में रहनेवाली सिरा
15=तृतीयक ज्वर
त्रिक संधि के बीच की सिरा
वागभट्ट(दोनों अंस संधि के बीच में रहने वाली सिरा)
16=चतुर्थक ज्वर
अंस संधि के नीचे किसी एक पार्श्व में स्थित सिरा
17=अपस्मार
हनुसंधि के मध्य की सिरा वागभट्ट (हनु मे कहीं भी,भ्रू के मध्य की सिरा
18=उन्माद
शंख और केशान्त के बीच में, उरःप्रदेश में ललाट प्रदेश में या अपांग की सिरा
19=जिह्वा/ दांत के रोग
जिह्वा के नीचे की सिरा
20=मूख रोग
जिह्वा,ओष्ठ,हनु, तालू को जाने वाली सिरा
21=तालु रोग
तालुगत सिरा मूह को खोलकर जीभ के ऊपर दीवार में
22=कर्ण रोग
कान में ऊपर की सिरा
23=नाक के रोग या गंध ग्रहण की विकृति
नासाग्र की सिरा
24=पीनस
नासा और ललाट के बीच में
24=आंख से ना देखना,आंख का पक जाना, अधिमंथ
नाक के समीप (उपनासिका सिरा) ललाट और अपांग की शिरा
25=जत्रुर्ध्व ग्रन्थि
ग्रीवा,कान,शंख,और निराश्रित सिरा।
यदि पूर्णतया विधि पूर्वक सिरावेध किया हुआ है तो करण के फूल में छेद करने से जिस तरह पहले पीले रंग का पानी बाहर निकलता है उसी तरह विधि पूर्वक सिरा वेध करने से शरीर में सबसे पहले ही दूषित रक्त बाहर निकलता है । स्नेहन, स्वेदन कर्म करने से रस और रक्त में स्थित दोष शिथिल होकर सिरा के ऊपरी सतह में आ जाते हैं इसीलिए रक्तमोक्षण में नीडल लगाते वक्त सिरा के ऊपरी सतह में तिरछा अंदर डाला जाता है ताकि शिथिल हुये रक्त की अशुद्धियां जो ऊपरी सतह मे आया हुआ था वह आसानी से बाहर निकल जाएगा।
शिरा बेध करते वक्त कुछ लक्षणों को निरीक्षण करना होता है सिरा बेध करते वक्त नीचे दिए गए बातों के ऊपर ध्यान से विचार करें।
1. यदि सही विधि से सिरा वेद नहीं हुआ है तो शोथ,दाह,राग,पाक यह लक्षण उत्पन्न होता है।
2. यदि अत्यन्त उष्णकाल हो या अधिक से अधिक स्वेदन कर दिया गया हो या सुई को कुछ ज्यादा अंदर प्रेस कर दिया गया हो इन सभी के कारण से अतिसार के लक्षण उत्पन्न होते हैं इसमें। सिर में गर्मी पर अधिक लगना और दर्द होना, आध्य, अधिमंथ, तिमिर, धातु क्षय,आक्षेपक,दाह पक्षाघात,एकांगरोग,हिक्का, श्वास,कास,पांडु, या मरण भी हो सकता है।
यदि रोगी भयभीत हो, यंत्र शिथिल होने के कारण सिरा का उत्थापन ठीक न हो, शस्त्र धारदार न हो, आतुर ने अत्यधिक भोजन पान किया हो, आतुर दुर्बल हो, संजात वेगों को उसने रोक दिया हो, स्वेदन ठीक न किया गया हो, उसी तरह मद, मूर्च्छा, श्रम, निद्रा से आतुर पीडित हो तो सम्यक् बेधन करने पर भी रक्तस्त्राव ठीक प्रकार से नहीं होता। अतएव सिरावेध करते समय उपर्युक्त विषयों का ध्यान रखकर उनका परिहार करना चाहिए।
How is Rakta mokshana Done | रक्त के अवस्थानुसार रक्त मोक्षण विचार |
दोषों के अतिरिक्त रक्त के अवस्थानुसार उपर्युक्त प्रयोग भेदों का विचार किया जाता है। रक्त गाढा है या बहुत अधिक गाढ़ा है या हद से अधिक गाढा़ है, तथा रक्त और त्वचा में स्थित है या अमुक स्थान में पिंडित (जमा हुआ) है, या संपूर्ण शरीर में दुष्टि है इसका विचार कर निम्नोक्त प्रकार से जलौकादि प्रकार का प्रयोग किया जाता है। यदि रक्त ग्रथित-(जमा हुआ) हो तो जलौका का उपयोग करें। एक स्थान में जमा हुआ हो तो प्रच्छान (नीडल से छोटे-छोटे छिद्र करके रक्त को निकालना)का प्रयोग करें। सर्वांग में रक्त व्याप्त हो तो सिराव्यधन से स्त्रवित करावे। त्वचा में सुप्त रक्त हो तो श्रृंग, अलाबु तथा घटीयंत्र के प्रयोग से निर्हरण करें।"
गुरुजनों के मतानुसार उत्तान यानी त्वचा के समीपवर्ती स्थान में रक्त हो तो प्रच्छान प्रयोग से निकाले उससे अंदर हो तो जलौका से निकाले, बहुत अंदर हो तो तुंबी से, तथा अत्यंत गंभीर हो तो श्रृंग, से निकाले। सर्वांगगत रक्त दृष्टि में सिराव्यध करना चाहिये।
अब यहां बात करेंगे कि यदि रोगी सुकुमार यानी नाजुक प्रकृति वाला है तो उसको श्रृंग और अलावु से Rakta mokshana करें।
जो अति सुकुमार है उनमें जलौकावचारण करे।
मजबूत शरीर और प्रकृति वाले लोगों के ऊपर प्रच्छान तथा सिरावेध करे। इस तरह से रोग बल , रोगी का बल, ऋतु बल आदि सभी रोग परीक्षण की व्यवस्था को ध्यान में रखकर उसी के अनुसार रक्तमोक्षण किससे करना चाहिए, कितना करना चाहिए,करना चाहिए या नहीं इसका निर्धारण किया जाता है
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Introduction
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