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आरोग्यवर्धिनी वटी के आयुर्वेदिक गुण धर्म निर्माण और प्रयोग विधि: arogyavardhini Vati benefits

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आरोग्यवर्धिनी वटी: मांसवह स्रोतस और मेद वहस्रोतस के अग्नि मंद होने के फलस्वरूप अपक्व मांस और मेद रस शरीर में बढ़ने लगता है| जिसके वजह से शरीर में बहुत सारे रोग पनपने लगते हैं। आरोग्यवर्धिनी वटी उसी मांस और मेद धातु के अग्नि को सवल करने का कार्य करता है।

और बाकी भी बहुत सारे फायदा शरीर में करता है उसके विषय में हम एक-एक करके यहां बात करेंगे।

आरोग्यवर्धिनी वटी में डाले जाने वाली जड़ी बूटी और उसके मात्रा।

Herbs used in Arogyavardhini Vati

arogyavardini vati

 

 

 

 

 

 

 

आरोग्यवर्धिनी वटी निर्माण करने का तरीका।How to make Arogyavardhini Vati.

आरोग्यवर्धिनी वटी बनाने के लिए सर्वप्रथम एक खरल में कजली तैयार करें।उसके बाद तीनों भस्मों को उक्त कजली के साथ मिलाकर मर्दन करें। 

उसके बाद त्रिफला,चित्रक मूल और कुटकी का पाउडर को डालकर दोबारा मर्दन करें।

फिर एक कढ़ाई में थोड़ा शुद्ध जल और शुद्ध गूगल मिलाकर थोड़ी देर तक मृदु आग में पकाए।

 उसके बाद वहां शिलाजतु को डालकर सभी को अच्छी तरह से पिगला दे। अच्छी तरह पिघलने के बाद जो पहले आपने पाउडर को मिक्स किया था उसको यहां मिक्स करके हाथ से जल्दी जल्दी मिला ले ।

उसके बाद ठंडा होने पर निम्व पत्र स्वरस के 7 भावना देकर छोटी बेर के समान गोलियां बनाकर धूप में सुखाएं और सुरक्षित रखें।

 

आरोग्यवर्धिनी वटी बनाते वक्त अपनाया जाने वाला सावधानीयां।Precautions to be followed while making Arogyavardhini Vati.

आरोग्यवर्धिनी वटी में शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक को डाला जाता है। इसकी शुद्धीकरण किए बगैर यदि आप arogyavardhini Vati प्रयोग करते हैं तो यह रोगी के लिए अत्यंत हानिकारक हो सकता है यदि

गलत पद्धति से आरोग्यवर्धिनी वटी निर्माण होता है तो वह रोगी के चर्म विकार को उत्पन्न करने वाला हो सकता है।

आरोग्यवर्धिनी वटी का गुणधर्म।Properties of Arogyavardhini Vati.

आरोग्यवर्धिनी वटी कफ वात शामक अग्नि वर्धक दीपन पाचन कार्य करने वाला अग्नी को बढ़ाने वाला बड़ी आंत की सफाई करने वाला शरीर को सुदृढ़ रखने वाला माना जाता है।

आरोग्यवर्धिनी वटी का प्रयोग विधि।Method of using Arogyavardhini Vati.

आरोग्यवर्धिनी वटी अलग-अलग रोगों मे अलग-अलग पद्धति से दिया जाता है।

अलग-अलग अनुपान के साथ आरोग्यवर्धिनी वटी देने पर इसका प्रभाव भी अलग-अलग देखा जाता है।

अक्सर गर्म पानी या गर्म दूध से आरोग्यवर्धिनी वटी लेने के लिए बताया जाता है।

 

आरोग्यवर्धिनी वटी का हानी।The harm of Arogyavardhini Vati.

आरोग्यवर्धिनी वटी में सभी रुक्ष प्रकृति के Ayurvedic jadi buti है। यह मांस मेदपाचक के रूप में कार्य करता है। अधिक सेवन करने पर शरीर में अत्यंत रुक्षता बढ़ जाता है। इसमें कुटकी का मात्रा अधिक है कुटकी अत्यंत लेखनीय द्रव्य है इसके अधिक सेवन से शरीर कमजोर हो जाता है इसका ध्यान रखना है।

किन रोगियों को आरोग्यवर्धिनी वटी नहीं दिया जाना चाहिए।Who should not give Arogyavardhini Vati

जिसका शरीर क्षत से क्षीण हो चुका है। जो कमजोर व्यक्ति का शरीर वाला हैं ।ऐसे व्यक्ति को आरोग्यवर्धिनी वटी नहीं देना चाहिए। क्योंकि कमजोर शरीर वाले व्यक्ति के लिए मल ही उसके शरीर का रक्षा करने वाला बताया गया है। आरोग्यवर्धिनी वटी मल को क्षय करता है मल क्षय होने से क्षीण व्यक्ति की मृत्यु होने का संभावना रहता है।

आरोग्यवर्धिनी वटी किन रोगों में काम करता है।In which diseases does Arogyavardhini Vati work?

ज्यादातर कुष्ठ विकार में आरोग्यवर्धिनी वटी को दिया जाता है।आरोग्यवर्धिनी वटी संपूर्ण प्रकार के कुष्ट (Skin Diseases) तथा वात, पित्त और कफोद्भूत विविध ज्वरों का नाश कर्ने वाली।   दीपन,पाचन, पथ्यकारक, ह्रद्य (ह्रदय को ताकत देने वाली), मेदोहर (मोटापे का नाश करने वाली), मलशुद्धिकर (कब्ज का नाश करने वाली), अत्यंत क्षुधावर्धक (भूख बढ़ाने वाली) और सामान्य सब रोगो में हितकारक है। श्री नागार्जुन योगी  का सर्वोत्कृष्ट आयुर्वेदिक क्लासिकल मेडिसिन है यह इसका मुख्य उपयोग कुष्ट रोगों में होता है।

7 महाकुष्ट और 11 क्षुद्र कुष्ट, बृहद अंत्र (Large Intestine)की विकृति होने पर होते है। बृहद अंत्र का कार्य ठीक न होने से उसमे मलावरोध उपस्थित होता है। फिर बृहद अंत्र और लघु अंत्र मे वायु दुष्ट होता है। इस तरह पचनार्थ आवश्यक पि9त्त विकृत होता है। बृहद अंत्र मे पुरःसरण (मल को आगे धकेलने की क्रिया) व्यवस्थित होने में सहायक कफ द्रव्य दूषित हो जाता है। फिर मल के आगे सरने में देरी होती है। परिणाम में सेंद्रिय विष (Toxin)की उत्पत्ति होकर वह अंतस्त्वचा और रक्त-मांस आदि धातुओ में शोषण हो जाता है, या सूक्षम परमाणुओ मे शोषित होकर धातुओ को दुष्ट बनाता है। फिर उस स्थान मे वात-विकृति होती है, वह धीरे-धीरे समस्त शरीर में व्याप्त हो जाती है; और वह प्रकुपित दोष कुष्ट को उत्पन्न करता है। लघु अंत्र और बृहदन्त्र, ये वायु (Gas) के प्रमुख स्थान है।आरोग्यवर्धिनी वटी की रचना सामान्यतः लघु अंत्र (Small Intestine) और बृहदन्त्र (Large Intestine) की विकृति को नष्ट करनेवाली है। इस हेतु से आरोग्यवर्धिनी वटी कुष्ट रोग (Skin Diseases) में लाभ पहुंचाती है। बिलकुल प्रथमावस्था में इसकी योजना करने से अति जल्दी और निश्चित सफलता मिल जाती है। यह वटी देने पर रोगी को केवल दुग्धाहार पर रखना चाहिये।

आरोग्यवर्धिनी वटी का कार्य:- benefits of arogyavardhini Vati

विशेषतः बृहदन्त्र शोधक और सेंद्रिय विषनाशक होने से बृहदन्त्र या समस्त मध्यम कोष्ट (stomach) में स्थित दोषों से उत्पन्न अनियमित बुखारों पर इसका उपयोग होता है। बद्धकोष्ट (कब्ज) जनित बुखार, अपचन-जनित बुखार, दिर्धकाल तक बार-बार उलटकर आनेवाला बुखार और पित्त के वैषम्य (imbalance) से उत्पन्न बुखार, सब पर यह हितकर है।

आरोग्यवर्धिनी वटी पाचनी अर्थात मल आदि का पचन कराने वाली है। मल आदि में जितना अंश रूपांतर योग्य हो, उतने का रूपांतर कराती है। इसका अर्थ यह है कि बृहदन्त्र और लघु अंत्रमें बहुत अन्नन्श (भोजन का अंश) अपक्व रह जाता है, मध्यम अंत्रमें कितनाक किट्ट और कुच्छ सारभाग शेष रह जाता है। इनमें से उपयोगी अंशका योग्य रूपांतर करा संशोषण कराना चाहिये। शेष किट्ट भाग को तुरंत शरीर से बाहर फेंक देना चाहिये। वर्तमान में किट्ट (मल)को सत्वर बहार निकाल देने के लिये स्निग्ध विरेचन का उपयोग होता है। परंतु इसका योग्य परिणाम तुरंत नहीं आता। ऐसी परिस्थितिमें आरोग्यवर्धीनी वटी को त्रिफला के हिम के साथ देना अधिक हितकारक है।

आरोग्यवर्धिनी वटी दीपनी अर्थात पाचक रस (Gastric Juice)को उत्तम प्रकार से और योग्य परिमाण में उत्पन्न करने वाली है। पाचक आदि पित्त का परिमाण कम होने या पित्त में पाचकांश (Digestion Power) कम होने पर अपचन उत्पन्न होता है। यह विकार वर्तमान में बहुत बढ़ गया है। इस विकार में पाचक औषधि का उपयोग किया जाता है, परंतु उसका परिणाम सामयिक होता है। यह व्याधि इस तरह की औषधि से यथार्थ में दूर नहीं होती और सच्ची क्षुधा (भूख) भी नहीं लगती। आरोग्यवर्धिनी वटी का कार्य प्रसाद धातुओ पर उनके वैषम्य (Imbalance) को नष्ट करने के लिये होता है, इससे धातु सबल बनती है, उनको शक्ति की प्राप्ति होती है, और वे अधिक कार्यक्षम होती है। इन प्रसाद धातुओ की क्रिया पर भिन्न-भिन्न रसो का परिणाम अवलंबित है, उन-उन रसो की उत्तम उत्पत्ति सम्यक धातुकार्य से होती है, और कार्य भी उत्तम प्रकार से होने लगता है। इस तरह आरोग्यवर्धीनी वटी का दीपन-कार्य स्थिर स्वरूप का होता है।

आरोग्यवर्धिनी वटी ह्रद्य है। इसका कार्य ह्रदय की निर्बलता में उत्तम प्रकार से होता है। ह्रदय की अशक्ति और उससे उत्पन्न सोथ (सूजन) पर इसका उपयोग होता है। इस अवस्था में आरोग्यवर्धिनी वटी और पुनर्नवा, ये दो शोथध्न औषध अति प्रशस्त है।

 

मेदोवृद्धि दो प्रकार से होती है। रुधिरवाहिनियों में कठोरता आकार रक्त में बल कम होने पर मेद अधिक उत्पन्न होता है, और निकण्ठमणि (Thymus Gland) निर्बल बनने पर पचन-व्यापार मंद होकर मेद की उत्पत्ति होती है। निर्बल पचन-क्रिया की वजह से शरीर की सात धातुओ (रस, रक्त, मांस, मेद, शुक्र, मज्जा, अस्थि) में से सिर्फ मेद ही बनता है और बाकी धातुए कम रह जाती है। परिणाम में मनुष्य बिलकुल निर्बल बन जाता है; उस पर आरोग्यवर्धिनी वटी का कार्य मेदोनाशक होता है। यह कार्य दीपन-पाचन आदि व्यापार को अच्छी तरह बढ़ाकर होता है। साथ साथ इससे मेद का रूपांतर हो कर अन्य धातु भी उत्तम रूप से बनने में सहायता मिल जाती है।

 

मलशुद्धि और विरेचन में बहुत फर्क है। विरेचन का परिणाम तत्काल और तीव्र स्वरूप का होता है। इस हेतु से उदर (पेट) आदि रोग या शिरःशुल (headache), जड़ता आदि तीव्र रोगों में जब तत्काल मद्यम कोष्ट (stomach)को शुद्ध करने की आवश्यकता हो, तब विरेचन का प्रयोग करना पडता है। तीव्र विकार न होने पर निंद्रानाश (sleeplessness) आदि चिरकारी (लंबे समय तक चलने वाले) रोगों में तीव्र विरेचन का प्रयोग नहीं होता। कितने ही विकार ऐसे चमत्कारिक और दिर्ध द्वेषी होते है। कि, उनका कुच्छ वर्णन नहीं हो सकता। रोगी को भयंकर त्रास होता रहता है; परंतु क्या होता है, यह स्पष्ट रूप से बाहर से नहीं जाना जाता। अंग टूटता है; परंतु स्पष्ट बुखार नहीं रहता। काम करना पडता है किन्तु उत्साह नहीं होता; भोजन करना पडता है; परंतु क्षुधा (भूख) लगकर रुचिपूर्वक नहीं खाया जाता। चाहे वैसा रुचिकर और स्वादिष्ट भोजन आगे आया, स्वाद नहीं आता। हंसना, विनोद करना, सब होते है, परंतु मन में प्रेम नहीं होता; केवल देहधर्म समझकर सब क्रियाएं होती रहती है। मुखमण्डल पांडु (पीला) वर्ण का निस्तेज, शुष्क-सा और उत्साहहिन हो जाता है; शरीर भारी लगता है। ये सब लक्षण मलावरोध (कब्ज) से होते है। ऐसे विकार में विरेचन का उपयोग नहीं होता। मल शोधन करने वाली सौम्य औषधि देनी चाहिये। यह कार्य आरोग्यवर्धिनी वटी से होता है।

मलशोधन (कब्ज को तोड़ने) के लिये आरोग्यवर्धिनी वटी श्रेष्ठ है। हम ने हमारे एक रोगी (patient) पर इसका प्रयोग किया था। उनको दिन में 4 से 5 बार शौच जाना पडता था। उनको आरोग्यवर्धीनी का कुच्छ समय सेवन कराते ही उनकी हालत अच्छी हो गई; फिर उनको दिन में सिर्फ एक ही बार शौच जाना पडता था।

 

अग्निमांद्य में भूख न लागने पर आरोग्यवर्धिनी वटी उपयोगी है। प्रभावशाली कुशल चिकित्सक विविध रोगों में इसकी योजना करके निःसंदेह लाभ उठा सकता है। यह गुटिका सर्व व्याधियों के मल रूप त्रिदोष-विकृति और पचनेन्द्रिय संस्था की अशक्ति को दूर करती है। इस वटी का उपयोग सर्व रोगों में होता है। सर्वांग शोथ (पूरे शरीर में सूजन) पर इस वटी का अच्छा उपयोग होता है।

 

संक्षेप में आरोग्यवर्धिनी वटी बद्धकोष्ट (कब्ज) और कोष्टगत वात की नाशक (cures gas in stomach), पाचक, दीपक, मूत्रल, आमपाचक, ह्रद्य (ह्रदय को ताकत देने वाली), अंत्र के सेंद्रिय विष और किटाणुओ की नाशक है। यह शोथध्न (सूजन का नाश करने वाली), वातानुलोमक (वायु को बराबर करने वाली), कोष्टगत वातशामक (पेट की गेस का नाश करने वाली) है। कुष्ट (skin diseases), विषम ज्वर (malaria), अपचन, जीर्ण बद्धकोष्ट (लंबे समय का कब्ज), ह्रदय की अशक्तता, मेदोरोग (obesity), मल-संचय, शरीर में से दुर्गंध आना, अग्निमांद्य, सर्वांग शोथ, प्रमेह और श्वास पर प्रायोजित होती है।

 

मात्रा: 1 से 4 गोली दिन में 2 बार दूध या जल के साथ।

Arogyavardhini vati is useful in gas, constipation, skin diseases, indigestion and swelling. It is a best remedy for long-term constipation.

 

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