भोजन के चरण बद्ध पाचन के लिए जो क्रम आयुर्वेद में बताया गया है उसे अवस्था पाक कहकर जाना जाता है।
जब हम कोई भी भोजन करते हैं तो वह पदार्थ हमारे पेट के अंदर जाकर किस प्रकार से पांच भौतिक संगठन के आधार पर विखंडन होते हैं और उससे कौन-कौन से रसों का प्रादुर्भाव होता है यह बड़ा ही दिलचस्प विषय है।
इस प्रसंग को समझने के लिए आपको सृष्टि के प्रारंभ में जिस प्रकार से पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश का निर्माण हुआ था इसको जान्ना जरूरी है ।
क्योंकि इसी पांच भौतिक संगठन की क्रिया में ही अन्न पाचन प्रणाली का नियम छुपा हुआ है।
सृष्टि के आदि काल में जब आकाश के अलावा और कुछ नहीं था तब दैवीय प्रेरणा से आकाश में शब्द गुंजायमान हुआ आकाश में गुंजित शब्द से वायु का निर्माण हुआ निर्माणाधीन वायु का आकाश और शब्द के सम्योग होने से स्पर्श तन्मात्रा का उदय हुवा।
आकाश, शब्द, वायु,और स्पर्श के योग से अग्नि प्रकट हुआ और वहां से रूप तनमात्रा हुआ इन सभी से जल महाभूत का उदय हुआ जल से रस तनमात्रा प्रकट हुआ। आकाश शब्द वायु स्पर्श अग्नि रूप जल रस के संयोग से पृथ्वी महाभूत का उत्पन्न हुवा। और उस पृथ्वी से गंध तनमात्रा का निर्माण हुआ।
इन सभी पंचभौतिक पदार्थों के उदय होने पर सभी के अपने अपने तनमात्रा के साथ योग होने से उसी पृथ्वी पर अन्न का उत्पादन हुआ और अन्न से वीर्य का उत्पादन हुवा और वीर्य से पुरुष का उत्पादन हुवा इसी प्रकार से प्रकृति का निर्माण हुआ ऐसी मान्यता है।
अब यहां ध्यान देने वाली बात बस इतनी सी है कि जब प्रकृति में किसी चीज का उत्पादन होना होता है तो ऊपर बताए गए नियमानुसार सबसे पहले आकाश तत्व का निर्माण होगा फिर अंत में पृथ्वी तत्व में जाकर पूर्ण होगा लेकिन जब किसी का नाश होना होगा तो सबसे पहले पृथ्वी तत्व का विघटन होगा उसके बाद जल तत्व का फिर अग्नि तत्व का फिर वायु तत्वका क्रमशः विघटन होकर अंत में आकाश तत्व ही रह जाता है।
जब हम भोजन करते हैं तो वह अन्न का जब सबसे पहले आमाशय में पाक कर्म होगा तो वहां पर पांचभौतिक तत्वों का विघटन होने की प्रारंभिक अवस्था शुरू हो जाएगी।
इसका मतलब उस भोजन में जो पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश रूप पंचमहाभूत है उनमें से सबसे पहले आमाशय में पृथ्वी और जल तत्व का विघटन होगा क्योंकि सृष्टि उत्पादन क्रम में पृथ्वी तत्व सबसे अंत में पुर्व के पांच तत्व और उन्के तन मात्रा के संयोग से निर्माण हुआ है। इसीलिए सर्वप्रथम पृथ्वी तत्व को तोड़कर उसके अंदर विद्यमान जो दूसरे तत्व के अणु है उसको विखंडन करना जरूरी था। क्योंकि अभी यहां पर भोजन द्रव्य का विखंडन करना है द्रव्य के अंदर विद्यमान जो पंचमहाभूत है उसको लय करना है इसी कारण से आमाशय को कफ का स्थान बताया जाता है। क्योंकि पृथ्वी और जल कफ प्रधान महाभूत है।
जब कफ प्रधान पृथ्वी और जल महाभूत का विघटन होगा तो इससे कफ को पोषण करने वाला मधुर रस प्रधान अणुओंका उत्पादन होगा। इसे प्रथम मधुर अवस्थापाक बोलते हैं।
द्वितीय अम्ल अवस्था पाक का सिद्धांत
उसके बाद उसी अन्नमें द्वितीय अवस्था पाक होने के लिए आमाशय से थोड़ा सा आगे लीवर के आसपास जहां पाचक पित्त अपने अम्लीय गुणो को लेकर अन्न पाचन के लिए बैठा हुआ था। वायु के प्रेरणा से वह प्रथम पाक हो जाने के बाद द्वितीय अवस्था पाक हेतु समान वायु पाचक पित्त के पास पहुंच जाता है यह अपने गुणों से उस अन्न द्रव्य में विद्यमान अपने सहधर्मी अग्नि तत्व का विघटन करना शुरू कर देता है।
क्योंकि जल तत्व और पृथ्वी तत्व तो पहले ही खंडित हो चुके हैं सृष्टि क्रम में तीसरे नंबर पर अग्नि ही था तो यहां अग्नि तत्व का अब विखंडन होगा मगर यहां कुछ आचार्य पृथ्वी और अग्नि तत्व का विखंडन करने की बातें बताते हैं।
अग्नि और पृथ्वी तत्व के अणु जब द्वितीय अवस्था पाक क्रिया से टूट जाते हैं तो वहां पर अम्लीय गुणों को पोषण देने वाला परमाणु का निर्माण होता है उसी से लीवर मैं इस्थित पित्त या सार्वदेहीक पित्त को संतुष्टि मिलती है।
द्वितीय अवस्था पाक पूर्ण होने तक उस अन्न से पृथ्वी जल और तेज के परमाणुओं का विलयन कर्म हो चुका होता है।
उसके बाद वायु के प्रेरणा से उस अन्न मैं विद्यमान वायु तत्वों के अणुओं को तोड़ कर शरीर में विद्यमान वायु तत्व के पोषण हेतु अन्न विघटन के लिए उस अन्न को आगे बढ़ाता है।
अकेला बचा हुवा आकाश और वायु प्रधान उस अन्न में अब तीसरी बार पाक क्रिया होगा जिसे हम तृतीय अवस्था पाक बोलेंगे।
यहां पर अन्न पाक के दाह क्रीया से वायु के अणु का विखण्डन होगा। जहां से वायु को पोषण देने वाला कटु रसात्मक परमाणुओं का निर्माण होगा। इस प्रकार से पुनः जिस तरह पांच भौतिक संगठन से अन्न का निर्माण हुआ था उसी प्रकार विघटन होते हुए अंत में आकाश तत्व में आकर सभी विलीन हो जाते हैं।
इसी को आधार मानकर भगवान श्री कृष्ण गीता में
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।
ऊपरकी ओर मूलवाले तथा नीचेकी ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्षको अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्षको जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाला है।
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