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स्वतंत्र दोष और परतंत्र दोष व्याधि किसे कहते हैं।classification of swatantra and paratantra vyadhi

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अपने हेतुओं से उत्पन्न दोष या व्याधि को स्वतंत्र दोष बताया जाता है। या जो अपनी चिकित्सा विधि से शांत हो जाता है और जिस का लक्षण स्पष्ट है वह स्वतंत्र दोष व्याधि है।

उदाहरण स्वरूप.

किसी आदमी को दाह की शिकायत थी हमने उनको पित्त वृद्धि समझकर दाह पसमन हेतु शित द्रव्य दिया तो रोगी का दाह समन हो गया। क्योंकि यह स्वतंत्र व्याधि था।

परतंत्र दोष व्याधि

जो दोष या व्याधि अपने हेतुओं से उत्पन्न नहीं होते और जो अपने चिकित्सा से  समन भी नहीं होता कभी-कभी दोष शमन के लिए चिकित्सा करने पर व्याधि और बढ़ जाती है। जिन व्याधियों को लेकर अक्सर रोगी दर-दर भटकते हैं।क्योंकि उस व्याधि का कारण चिकित्सक को मालूम नहीं होता है। बिना जाने रोगी को लक्षण को देखकर ही चिकित्सा देते हैं। और जिसका लक्षण अस्पष्ट होता है उसे परतंत्र दोष व्याधि कहा जाता है।

उदाहरण स्वरूप

मान लीजिए एक बार किसी वैध जी के पास एक मरीज आया कहने लगा कि मुझे कभी पैर में कभी घुटने में कभी पेट में कभी छाती में कभी सिर में बदल बदल कर जलन होती है 

वैद्य जी को लगा कि यह तो पित्त से संबंधित व्याधि है उन्होंने बड़ी हर्ष से रोगी को पित्त शामक शीत द्रव्य दिया इसको खाने के बाद रोगी में वह जलन और बढ़ गया रोगी और परेशान हो गया वह वैद्य जी के पास आया अब यहां वैद्य जी को लगा कि चलो निदान परीक्षण करते हैं।

 हेतु को निकालना शुरू किया तो पता चला रोगी हर रोज रात के 12:00 बजे भोजन करने के बाद 2:00 बजे तक चिंता ग्रस्त होकर वाहर ठंड मे घुमने के लिए बाहर निकलता थे। इस तरह की क्रिया से रोगी के शरीर में वायु के शीत,रुक्ष, चल, और चिंता वाली गुणों की वृद्धि हो रही थी। वृद्धतर वायु अपने प्राकृतिक स्थिति में रहा हुवा पित्त के परमाणुओं को जो अपने प्राकृतिक स्वभाव से दाह कारक होते हैं को अपने साथ संचय अवस्था में लपेटे में लेकर हेतु के कारणों से खुद के वृद्ध होने पर पित्त के स्वाभाविक गुणों को भी बढ़ा देता था इसीलिए वैद्य द्वारा दिए हुए शीत गुण प्रधान द्रव्य से वायु और बढ़ रहा था वायु के बढ़ने से उसके साथ पित्त को वह विकृत कर रहा था इस हेतु से पित्त दाह कर रहा था। तो इसे कहते हैं परतंत्र दोष व्याधि।

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