आज हम Oral Cancer यानी मुंह के कैंसर में आयुर्वेदिक विचार और चिकित्सा के बारे में गहराई से चर्चा करेंगे।
⚠️ एक ज़रूरी बात:
यह लेख केवल शैक्षणिक जानकारी के लिए है।
किसी भी औषधि या चिकित्सा पद्धति का उपयोग किसी योग्य वैद्य या आयुर्वेदाचार्य के परामर्श के बिना न करें।अगर आप आयुर्वेद के जानकार वैद्य नहीं हैं, तो कृपया इस लेख में बताई गई औषधियों या चिकित्सा पद्धतियों का स्वयं पर या किसी और पर प्रयोग न करें।
आयुर्वेद में हर व्यक्ति की प्रकृति, रोग की अवस्था और मानसिक स्थिति के अनुसार ही चिकित्सा निर्धारित की जाती है, इसलिए किसी योग्य और अनुभवी वैद्य से परामर्श लेना जरूरी है।
मुख कैंसर (Oral Cancer) में मुँह के किसी भी भाग — जैसे होंठ, मसूड़े, जीभ, गाल की अंदरूनी सतह, तालू या गले के पास में असामान्य वृद्धि (गांठ, फोड़ा, घाव) देखी जाती है।
आधुनिक चिकित्सा में इसे Malignancy या Oral Carcinoma कहा जाता है, और यह स्थिति कभी-कभी बहुत पीड़ादायक, भूख न लगने वाली, और धीरे-धीरे शरीर को कमजोर करने वाली होती है।
आयुर्वेद इस रोग को मुखार्बुद, गिलायु, मुखपाक, व्रण आदि नामों से जानता है। इसकी चिकित्सा रोग के कारण, स्वरूप और रोगी की शक्ति को ध्यान में रखकर की जाती है।
जैसे हम सब जानते हैं, आजकल गलत खानपान, अत्यधिक तैलीय और पैकेज्ड फूड, तम्बाकू, गुटखा, धूम्रपान जैसी आदतों के कारण इंसान कई गंभीर रोगों से ग्रस्त हो रहा है।
इन्हीं रोगों में से एक है कैंसर, और उसमें भी मुख यानी मुंह का कैंसर आज तेजी से फैलता जा रहा है।
आज हर गली-मोहल्ले में कैंसर के मरीज मिल रहे हैं, और यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
इस लेख में हम विशेष रूप से मुख कैंसर (Oral Cancer) पर चर्चा करेंगे:
जब हम आयुर्वेद की आँखों से मुख कैंसर को देखते हैं, तो यह केवल एक शारीरिक विकृति नहीं, बल्कि जीवनशैली, आहार-विहार और आंतरिक दोषों के लंबे समय तक संचय का परिणाम प्रतीत होता है।
आयुर्वेदिक ग्रंथों में Mouth Cancer के मूल में रक्त धातु की विकृति, दुष्ट पित्त, और कई बार कफ दोष को भी उत्तरदायी माना गया है — और यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि मुंह स्वयं कफ का प्रमुख स्थान माना जाता है।
किन्तु केवल इतना ही नहीं — यह रोग भीतर से और भी गहरे में जाकर जड़ें जमाता है।
आयुर्वेद के दृष्टिकोण से जब अपान वायु का कर्मक्षय होता है, तब शरीर में शुद्धि का कार्य अवरुद्ध हो जाता है।
पुरीषवह श्रोतस (मलमार्ग) और मूत्रवह श्रोतस (मूत्रमार्ग) में जब विकृति उत्पन्न होती है, तब यह स्थिति उदावर्त के रूप में सामने आती है — एक ऐसी अवस्था, जहाँ वायु अपने स्वाभाविक मार्ग में न जाकर उल्टी दिशा में गमन करती है, और यह असंतुलन शरीर के विभिन्न भागों में रोग का बीज बो देता है।
इसके साथ यदि अम्लरस की अधिकता, तीखे, खट्टे, तले हुए भोजन का अनियंत्रित सेवन हो और जीवन में असंतुलित जीवनशैली (जैसे रात्रि जागरण, तनाव, अव्यवस्थित दिनचर्या) जुड़ जाए, तो यह रोग जटिल रूप धारण कर लेता है।
और जब कारण इतने गहरे हों, तो चिकित्सा भी केवल सतही नहीं हो सकती।
इसलिए आयुर्वेद में इसकी चिकित्सा में वमन, विरेचन, और रक्तमोक्षण को अत्यंत महत्व दिया गया है — ताकि दोषों का शोधन हो सके, मूल विकृति का समूल नाश हो।
कई बार रोगी को कैंसर न भी हो, फिर भी मुंह में गांठें या सूजन जैसी स्थितियाँ देखने को मिलती हैं।
इन गांठों को आयुर्वेद में गुल्म कहा जाता है। यह गुल्म सामान्यत: कफ दोष के प्रबल संचय का ही परिणाम होता है।
ऐसी दशा में चिकित्सा का उद्देश्य केवल लक्षणों का दमन नहीं, बल्कि कफ की संप्राप्ति को भंग करना होना चाहिए।
इस हेतु:
जहाँ औषधियों से अपेक्षित लाभ न मिले, वहाँ अग्निकर्म जैसी आयुर्वेद की विशिष्ट क्रियाएँ — जैसे स्वर्ण शलाका से अग्निकर्म — भी अत्यंत प्रभावी मानी जाती हैं। ये विधियाँ स्थूल कफ को भस्म कर संप्राप्ति को तोड़ देती हैं और रोग में विशिष्ट सुधार लाती हैं।
इस प्रकार, मुख कैंसर केवल एक रोग नहीं, बल्कि आंतरिक दोषों, अवरुद्ध स्रोतसों, और बिगड़े जीवन-संस्कारों की एक समष्टि है — जिसे केवल एक योग्य वैद्य ही पहचान कर उचित चिकित्सा-क्रम निर्धारित कर सकता है।
(मुख कैंसर में धातुओं की संलग्नता)
जब हम मुंह के कैंसर को लक्षणों के आधार पर गहराई से देखते हैं, तो यह केवल एक स्थानिक विकृति न होकर शरीर की मूलभूत धातु-व्यवस्था में उत्पन्न गंभीर असंतुलन का परिणाम दिखाई देती है।
आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से यह रोग केवल एक तंतु या ऊतक को नहीं, बल्कि अनेक गहन धातुओं को प्रभावित करता है।
मुख कैंसर में सामान्यतः जिन धातुओं की विकृति देखी जाती है, वे हैं:
रक्त धातु (Blood Tissue)
– प्रायः सभी प्रकार के कैंसर में रक्तदोष की प्रमुख भूमिका होती है।
– जब रक्त दूषित होता है, तो यह पूरे शरीर की पोषण शृंखला को विषैला बना देता है।
मेद धातु (Adipose/Fat Tissue)
– कफजन्य और स्त्रोतस अवरोधजन्य कैंसर में मेद की सान्द्रता और रुकावट देखी जाती है।
– विशेषकर गालों, मसूड़ों और ओष्ठ के कैंसर में इसकी भूमिका स्पष्ट होती है।
अस्थि धातु (Bone Tissue)
– जब कैंसर का प्रभाव जॉ लाइन, दाँत की हड्डियों या जबड़े तक पहुँचता है, तब यह अस्थि धातु की गम्भीर विकृति को दर्शाता है।
मज्जा धातु (Bone Marrow/Nerve Tissue)
– रोग के बढ़ने पर जब अत्यधिक दर्द, झनझनाहट, या अंगों का सुन्न होना जैसा अनुभव होता है, तो समझना चाहिए कि मज्जा धातु भी संलग्न हो चुकी है।
मांस धातु (Muscle Tissue)
– कभी-कभी शुरुआती अवस्था में जब मुंह में फोड़ा, सूजन, मांस वृद्धि या अतिरिक्त ऊतक बनते हैं, तब यह मांसधातु की विकृति का संकेत होता है।
इन धातुओं में या तो:
कर्मत्व प्रकोप होता है — यानी धातु अपनी प्राकृतिक क्रिया नहीं कर पाती,
या
मार्गावरोध — जब स्त्रोतसों में रुकावट उत्पन्न हो जाती है, जिससे धातु-परिवर्तन का क्रम बाधित हो जाता है।
इस प्रकार की गहन धातु-गत विकृति ही एक सामान्य गाँठ (Gulma) को आगे चलकर अर्बुद (Malignancy) का रूप दे देती है।
👉 इसलिए मुख कैंसर के उपचार में केवल स्थानिक चिकित्सा पर्याप्त नहीं होती। रोग की जड़ें जब तक धातु-स्तर पर न देखी जाएँ, तब तक उसकी चिकित्सा अधूरी मानी जाएगी।
आयुर्वेद कहता है कि "जहाँ वायु नहीं चलती, वहाँ रोग ठहरते हैं।"
और जब वायु को रोकने वाला सबसे बड़ा कारक बनता है – पुरीष का उदावर्त, यानी मल का उल्टा गमन या मलोत्सर्ग की रुकावट, तो वह शरीर में विकृति का बड़ा कारण बनता है।
किसी भी प्रकार के गंभीर रोगों, विशेषकर कैंसर जैसे जटिल विकारों में, यह देखा गया है कि रोगी के शरीर में पुरीष का उदावर्त एक आम विकृति के रूप में मौजूद होता है।
मुंह का कैंसर भी इससे अछूता नहीं है। यदि आप या आपका कोई परिचित Oral Cancer से पीड़ित है, तो इन गहराईयों पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है।
यदि आप आयुर्वेदिक ग्रन्थों को केवल पढ़ें नहीं, बल्कि उनके मर्म को समझें, तो आप चौंक जाएंगे कि कैसे शरीर के एक भाग की गड़बड़ी, दूसरे भाग में भयंकर रोग का कारण बन सकती है।
बवासीर (अर्श) की वजह से कानों में आवाज़ (Tinnitus) होना,
अधिक कब्ज होने पर सिरदर्द, कंधे में जकड़न,
मूत्र का रुकना और उससे हृदय तथा आंखों में रोग उत्पन्न होना —
यह सभी बातें आयुर्वेद के महान ग्रंथों में स्पष्ट रूप से वर्णित हैं।
यहां तक कि कुछ ग्रंथों में बवासीर के कारण मस्तिष्क में ब्रण (Tumor) होने की संभावना का भी संकेत मिलता है। यह कोई आधुनिक कल्पना नहीं, बल्कि शास्त्रीय अभिव्यक्ति है।
मुखपाक, यानी मुँह में जलन, छाले, फोड़े या पकने जैसी स्थिति –
यह भी अक्सर पुरीष दोष और उदावर्त का परिणाम होता है।
अगर इस प्रारंभिक अवस्था को अनदेखा किया जाए, तो यही स्थिति धीरे-धीरे आगे चलकर मुख कैंसर जैसी घातक अवस्था में परिवर्तित हो सकती है।
शरीर एक समन्वित यंत्र है – हर अंग, हर स्रोतस् एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है।
पुरीष का विघ्न यानी मलोत्सर्ग में रुकावट, पूरे शरीर में वायु और अग्नि के प्रवाह को बाधित कर देती है।
यही रुकावट जब लंबी चलती है, तो धातुओं, दोषों और मनोबल — तीनों को विकृत कर देती है।
📌 इसलिए, यदि हम किसी गंभीर रोग — विशेषकर मुख कैंसर — की चिकित्सा कर रहे हैं, तो केवल स्थानिक चिकित्सा नहीं, पुरीष की अवस्था, उदावर्त की जड़ें, और मल-मूत्र की सम्यक गति पर भी ध्यान देना आयुर्वेद का अनिवार्य अंग है।
मुंह के कैंसर में आहार-विहार: विशेष ध्यान की आवश्यकता:- जब किसी व्यक्ति को मुख का कैंसर (Oral Cancer) हो जाता है, तब केवल औषधि और चिकित्सा ही नहीं, बल्कि उसके आहार और दिनचर्या (विहार) पर भी विशेष रूप से ध्यान देना अनिवार्य हो जाता है।
क्योंकि जो शरीर भीतर से विषाक्त हो चुका है, उसे भीतर से ही शुद्ध और पोषित करना होगा।
आजकल आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा, दोनों ही Whole Foods और Millets (तृणधान्य) को कैंसर रोगियों के लिए अत्यंत लाभकारी मानते हैं।
इनमें प्रचुर मात्रा में फाइबर, माइक्रो न्यूट्रिएंट्स, और क्लीन एनर्जी देने वाले तत्व होते हैं जो शरीर से विष को बाहर निकालने और रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करते हैं।
विशेष रूप से तृणधान्यों में:
बाजरा
कोदो
कंगनी
सावाँ
जैसे धान्य आते हैं — जिन्हें युक्तिपूर्वक यानी योग्य मात्रा और उचित समय पर सेवन करना चाहिए।
मुंह के कैंसर की अवस्था में जौ, कुलथी की दाल, और शुद्ध शहद का संयमित सेवन अत्यंत उपयोगी होता है।
ये सभी द्रव्य:
शरीर को शुद्ध करते हैं
वात-पित्त-कफ को संतुलित करते हैं
तथा रोगी की मेटाबॉलिज़्म और ऊर्जा को बनाए रखते हैं।
लेकिन इन सब में सबसे अधिक भरोसेमंद, सबसे अधिक सुरक्षित, और गौरवशाली आहार माना गया है — मूंग की दाल।
एक अध्ययन से यह बात सामने आई कि
जब विभिन्न दालों को अलग-अलग पानी में भिगोया गया,
तो अधिकांश दालें कुछ घंटों में बिगड़ने लगीं,
उनमें दुर्गंध आने लगी और फफूंद (fungus) लगने लगा।
लेकिन मूंग की दाल अपेक्षाकृत लंबे समय तक सुरक्षित रही।
👉 इसका अर्थ यह है कि मूंग दाल में वह तत्व मौजूद हैं जो ऑक्सीजन को धारण करने और जीवाणु-नाशक होने की क्षमता रखते हैं।
और जैसा कि हम जानते हैं:
कैंसर कोशिकाओं का प्रमुख शत्रु – ऑक्सीजन है।
शरीर में जितनी अधिक ऑक्सीजन पहुँचेगी,
उतना ही शरीर कैंसर से लड़ने में सक्षम होगा।
इसलिए, मुंह के कैंसर जैसे गंभीर रोग में
मूंग की दाल केवल एक आहार नहीं,
बल्कि एक जीवनीय औषधि के रूप में कार्य करती है।
इसका नियमित सेवन रोगी को बल, सत्व, और शुद्धता प्रदान करता है।
Oral cancer से पीड़ित रोगी को मछली नहीं खाना चाहिए -
हम जानते हैं मछली हमेशा सड़े हुए जानवर और मिट्टी को खाता है गंदगी में रहता है मछली खाने वाले कैंसर रोगी के शरीर में मछली कैंसर कारक कोशिकाओं को पनपने का अवसर दैता है। इसी प्रकार गंदगी पसंद दूसरे जानवर जैसे सूअर और भैंस का मांस को भी समझना चाहिए यह सभी गंदे स्थान में रहना पसंद करते हैं उनकी मांस में पित्त के विश्र गुण (जिससे शरीर में बदबू आता है) को तैयार करता है। यह विश्रगुण शरीर में कीचड़ के स्वरूप में होता है। शरीर के ऐसे दुर्गूण को बढ़ाने वाले इन चीजों से रोगी को दूर रहना चाहिए।
इसी प्रकार मूली ताजी हो या सुखी हो में भी उसी तरह का गुण होता है मगर इसमें तिक्ष्ण गुण प्रधान अम्लीय पदार्थ होने के कारण यह भी कैंसर रोगियों के लिए उपयोगी नहीं है।
इनके लिए उड़द का दाल भी सेवन करने योग्य नहीं है क्योंकि यह भी मलों को अत्यधिक निर्माण करने वाला होता है मगर यदि आपने इस दाल को खाना है तो नाग भस्म और शंख भस्म बाद में ले सकते हैं।
मुंह के कैंसर में किसी भी प्रकार का सिरका गन्ने का रस और फाडी़त को भी नहीं लेना चाहिए।
रात में सोने का तरीका
अक्सर देखा जाता है पेट के बल लेट कर सोने वाले लोगों के शरीर में कृमी होता है सभी में नहीं लेकिन ज्यादातर देखा जाता है इसका मतलब पेट के बाल सोने से शरीर में दूषित परमाणु बढ़ जाते होंगे तभी तो कृमी होने की संभावनाएं होती है इसलिए बाय या दाईं करवट लेकर या फिर छत की ओर मुंह करके सोना ऐसे रोगियों के लिए हितकर होता है।
तंबाकू सेवन और मुंह के कैंसर का आयुर्वेदिक दृष्टिकोण
किसी भी व्यक्ति को अच्छे या बुरे आदत को जल्दी त्यागना नहीं चाहिए चाहे वह अच्छा हो या बुरा हो हर प्रकार की आदतें धीरे-धीरे ही छोड़ना चाहिए एक झटके में आप त्यागने का प्रयास करोगे तो वह आपके शरीर के लिए हितकर नहीं है।
जैसे कि ग्रंथकार लिखते हैं:-
शनैः शुभं समारभ्य, शनैः पापं परित्यजेत्।
आकस्मिकं न कर्तव्यं, त्वरायां हानिरुच्यते॥
अच्छी आदत को धीरे-धीरे प्रारंभ करो और बढ़ाते जाओ बुरे कर्म को धीरे-धीरे बंद करते जाओ जल्दीवाजी मत करो।
यदि कोई आदमी गुटका, तंबाकू,सिगरेट जैसे चीजों का अधिक सेवन करते हैं और उसके कारण से मुंह में कैंसर हो रहा है या होने वाली है तो चिकित्सक को चाहिए कि वह रोगी को युक्ति पूर्वक गुटखा आदि का त्याग कराएं जैसे एक तरीका में यहां लिख रहा हूं -
शास्त्रकार बताते हैं कि किसी भी प्रकार के अच्छे और बुरे कर्म हमारे शरीर में मूर्तिमन्त होकर श्रोतस के रुप में विद्यमान रहते हैं।
यदि कोई इस प्रकार के नशीला पदार्थ का सेवन करता है तो वह पदार्थ भाव और मूर्त रूप में शरीर के अंदर अपना अस्तित्व तैयार करता है।
ऐसे में यदि वह व्यक्ति एक दिन भी ऐसे तामस पदार्थ का सेवन न करें तो उस मूर्त रूप के structure में असर दिखता है और शरीर में उसकी कमी का अनुभव उस व्यक्ति को होता है ।
और वह निरंतर उस चीज का सेवन करने का विचार करता रहता है।
ऐसी अवस्था में हम आयुर्वेद से क्या कर सकते हैं।
आयुर्वेद में कुछ ऐसे वनस्पति है जो इस प्रकार के कफ वर्गीय दुष्ट स्रोतों को नष्ट करता है जैसे मूत्र संग्रहणीय महाकषाय या मूत्र विरेचक दवाइयां।
यह दवाई उन structure को तोड़कर मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देता है क्रमशः रोगी को कुछ भी नशीले पदार्थ खाने या पीने का मन नहीं करता ।
अष्टांग हृदय लगायत अन्य ग्रंथों में कैंसर यह शब्द नहीं है लेकिन गहराई से ग्रंथ का अध्ययन करते हैं तो लक्षणों के आधार पर एक-एक करके सभी प्रकार के कैंसर का स्पष्ट वर्णन मिलता है लेकिन अलग-अलग नाम और स्वरूप के साथ।
मुंह के कैंसर का सर्वाधिक प्रभाव अस्ति धातु और मज्जा धातु के ऊपर रहता है।
यदि हम शास्त्रों की चर्चा करें तो वयस्थापन गण( बल + शरीर को नवीन बनाए रखने में सहयोगी) के औषधी में से गिलोय और आंवला को अस्थि मज्जा पाचक के रुप में भी देखा जाता है। यह दवाई कितना प्रभावकारी है कि रेडिएशन थेरेपी के तुरंत बाद यदि आप यह दोगे तो रेडिएशन का दुष्ट परिणाम से रोगी को बचाया जा सकता है क्योंकि यह शरीर और उसके organ को जवान रखने का प्रयास करता है।
मुंह का कैंसर है और आप चिकित्सक हो इस तरह के विचार के साथ अगर आपकी इच्छा करते हो तो आपके चिकित्सा का नींद मजबूत होता जाएगा
अब हम मुंह के कैंसर के संदर्भ में इस मुंह में स्थित दांत के बारे में चर्चा करेंगे।
दांत - यह दांत केवल शोभा सूचक नहीं है यह पाचन शक्ति का प्रतीक भी है यानी दांत कमजोर होना दांत में कीड़े लगना काला पीला जैसे कुछ रंग संयुक्त होना इन सभी का संबंध इंसान के पाचन शक्तियों से जुड़ा हुआ रहता है। दांत अस्थि धातु से तैयार होता है अस्थि धातु का अधिकतर संबंध पक्वाशय से रहता है । जैसे arthritis से देख सकते हैं। यहीं रहता है पुरिष (stool) शरीर के अच्छे और बुरे कृया में इस पदार्थ का अत्याधिक भूमिका रहता है। पुरिष के उपर चर्चा हम उपर करते आ चुके हैं।
इसीलिए मुख कैंसर में दांत,अस्थि धातु पक्वाशय तथा पुरीष इन तीनों का विचार अनिवार्य है।
दक्षिण भारत में कुछ पुराने वैद्य मुख के कैंसर में कुछ आयुर्वेदिक दवाई बालों में और नाखून में लगाने के लिए देते थे और रोगी आश्चर्य जनक तरीका से ठीक होते थे तब हम यह सोचते थे कि नाखून और बाल में लगाने वाली दवाई का संबंध मुंह के कैंसर से कैसे हो सकता है मगर आज समझ में आ रहा है जिसका चर्चा हम ऊपर से करके आ चुके हैं।
कर्नाटक में कुछ वैद्य मुंह के कैंसर में चांगेरी घृत से मलद्वार में पिंचू देते हैं उसका संबंध भी यहीं से लगा सकते हैं कि मुंह का संबंध अपान वायु तथा पक्वाशय से रहता है इसी आधार पर यह दवाई काम करता है।
कुछ वैद्य मुंह के कैंसर जैसे अवस्था में सुश्रुत संहिता में वर्णित अगदतंत्रोक्त दंतविषघ्न औषधि का काढ़ा या सिद्ध घृत नाक,आंख,कान में डलवाते हैं तथा मुंह में रखकर गंडूष कराते हैं। आयुर्वेद में लिखा है कैंसर का मतलब वास्तव में शरीर के अंदर एकत्रित जहर ही तो है। इसलिए यहां अगदतंत्रोक्त दंतविषघ्न औषधि अधिक महत्वपूर्ण रहेगा। इन औषधियों में शोथहर , रक्तशोधक ,और श्लेष्मनाशक गुण होते हैं, जो कैंसर की वृद्धि को रोकने में सहायक होते हैं।
ये औषधियाँ शरीर की ओजस और इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाती हैं, जिससे रोग प्रतिकारक शक्ति बढ़ती है।
अगदतंत्र में वर्णित बिषघ्न औषधीयां जिसको मैंने कफ पित्त और वायु के हिसाब से अलग-अलग करके रख दिया आप रोगी के हिसाब से यहां देख कर प्रयोग करें। यह अष्टांग हृदय से निकाला गया combination है। दवाई का प्रयोग oral cancer में करते हैं तो बहुत अच्छा result दिखेगा।
दोष प्रकार | औषधि समूह (अगद योग) | प्रमुख द्रव्य | उपयोग विधियाँ | कैंसर में लाभ |
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पित्तप्रकृति मुख कैंसर | पित्तहर अगद योग | नेत्रबाला, विकंकत (कंटाई) बीज, सारिवा, मोथा, शमी, लालचंदन, सोनापाठा की छाल, सिंवार, नीलकमल, तगर, मुलेठी, दालचीनी, गंधनाकुली, पद्मकाठ, मैनफल बीज। | - गंडूष (कुल्ला) - नस्य (नाक में) - अंजन (आंखों में) - लेप व सेचन | मुख की जलन, सूजन, रुधिरपित्त, घाव, ताप को शांत करता है |
कफप्रकृति मुख कैंसर | कफहर अगद योग | हल्दी, नागरमोथा, सर्पाक्षी, पीपल, सोंठ, पिप्पलामूल, चीता की जड़, वरुण छाल, अगरु, बेल की गिरी, पाढ़ल छाल, नीम छाल, हरड़, लिसोड़ा छाल, नागकेसर। | - गंडूष - नस्य - क्वाथ सेवन - लेप | कफज स्राव, गांठ, बलगम, विषविकार, ग्रंथि-रूप वृध्दि में प्रभावी |
वातप्रकृति मुख कैंसर | वातहर अगद योग | बेल गिरी, लालचन्दन, तगर, नीलकमल, सोंठ, पीपल, निचुल, वेतस, कूठ, सीप, सागवान सार, त्रिफला (वर), पादल छाल, भारंगी, सम्हालू के पत्ते, मैनफल, दालचीनी। | - गंडूष - लेप - नस्य - क्वाथ सेवन | शोष, सूखा दर्द, संकुचन, कंपन, और वातजन्य सूजन में लाभकारी |
Submucosal fibrosis यह सिरा,स्नायु और कंडरा से संबंधित रोग है इसमें वायु का अधिक प्रभाव रहता है। इस संदर्भ में यदि रोगी का निरंतर शरीर क्षीण होते जा रहा है तो आप एक बार राजयक्ष्मा प्रकरण को जरूर अध्ययन करें। क्योंकि राजयक्ष्मा में भी संप्राप्ति स्वरूप सिरा, स्नायु और सन्धियों में दुष्ट दोष भरे हुए रहते हैं । यदि राजयक्ष्मा का लक्षण भी समझ में आए तो अपनी चिकित्सा में थोड़ा परिवर्तन जरूर करना चाहिए।
इस अवस्था में स्वर्ण सलाका से अग्निकर्म करें,ववूल के कांटे से हनूसन्धि में विद्ध करें,जलौका लगाले, कफपित्तज ज्वर का काढ़ा निरंतर पिनेको दे,विल्वतेल से कर्ण पूरण करें। रक्त+मेदोपाचक औषधि दे। इतना कुछ करने से धीरे-धीरे मुंह खुलना प्रारंभ हो जाएगा।
स्वर्ण शलाका द्वारा अग्निकर्म
बबूल के कांटे से हनू-संधि वेधन
जलौका (Leech therapy)
कफ-पित्तज ज्वर का काढ़ा
बिल्व तेल से कर्ण पूरण
रक्त + मेदोपाचक औषधियाँ
इन विधियों से धीरे-धीरे मुंह खुलना प्रारंभ हो जाता है।
कपालभाति, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी और 'ॐ' उच्चारण से शरीर में शुद्ध ऑक्सीजन का संचार होता है। कैंसर के हर स्तर पर ऑक्सीजन की कमी देखी जाती है। इसीलिए नियमित प्राणायाम करना अत्यंत लाभदायक है।
Submucosal fibrosis में शिवलिंग के बीज को एरण्ड तेल में डालकर सुबह भोजन से पहले रात को भोजन के बाद प्रयोग करने से इसका बेहतर result दिखता है। बसर्ते इसके प्रयोग के बाद कम से कम आधा घंटे तक पानी तक ना पिया जाए।
- यहां मवाद के साथ यदि घाव से bleeding हो रहा है तो यहां पित्त सामक चिकित्सा के लिए सोचे साथ में यदि रक्त अधिक बह रहा हो तो स्वर्ण शलाका से अग्नि कर्म करे।
जब किसी रोगी में मवाद (पूय) की अधिकता के साथ ज्वर (fever) भी हो, तो सबसे पहले ज्वर की चिकित्सा करना आवश्यक होता है। यह स्थिति शरीर में गंभीर संक्रमण या तंतु क्षरण (Tissue degeneration) का संकेत हो सकती है। यदि इसके साथ रोगी में धातुपाक और प्रमेह जैसे लक्षण जैसे कमजोरी, थकावट, पेशाब में गड़बड़ी, आदि दिखाई दें, तो सूक्ष्म त्रिफला, गंधक रसायन, और आवश्यकता अनुसार मल्ल सिन्दूर का प्रयोग विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होता है।
इन औषधियों का चयन रोगी की प्रकृति, अग्नि की स्थिति और रोग की तीव्रता के आधार पर किया जाना चाहिए। इन औषधियों का मुख्य कार्य है —
संक्रमण को रोकना
शरीर से विष दोष (Ama) को बाहर निकालना
धातुओं की रक्षा करना
ऊतक क्षरण को रोकना
इस स्थिति में किसी भी प्रकार की दाह उत्पन्न करने वाली औषधि से परहेज किया जाना चाहिए और रोगी को आरामदायक, सुपाच्य, और तरल आहार देना चाहिए।
ज्वर की अवस्था में स्नान वर्जित है, परंतु शरीर की स्वच्छता का ध्यान रखना आवश्यक है।
ज्वर की अवस्था में स्नान वर्जित; स्वच्छता‑रक्षा आवश्यक।
यदि रोगी को बार-बार उल्टी (छर्दि) हो रही हो, तो सबसे पहले छर्दि-चिकित्सा करनी चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार, छर्दि मुख्यतः पित्त, कफ या त्रिदोषज विकृति के कारण होती है। उचित औषधियों जैसे लवणभास्कर चूर्ण, एलादी चूर्ण, या चन्द्रकान्त रस का प्रयोग किया जा सकता है, जो दोषों को शांत कर उल्टी की प्रवृत्ति को रोकते हैं।
अगर मुख-कैंसर की वजह से मुँह पूरी तरह बंद हो चुका हो, भूख न लगती हो और ऑपरेशन संभव न हो — ऐसी स्थिति में मुस्तादि यापन वस्ति अत्यंत लाभदायक सिद्ध होती है।
किन्तु यदि रोगी को उच्च ज्वर है, तो वस्ति नहीं देनी चाहिए।
जब रोगी को अत्यधिक ज्वर (high fever) हो, तब आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से तुरंत गहन चिकित्सा करने की बजाय साधारण नमक-जल की वस्ति (lukewarm saline enema) से शरीर का ताप संतुलित किया जाता है। इससे शरीर का तामसिक ताप और विषदोष कम होता है।
ज्वर शांत होने के बाद ही रोगी को उचित आयुर्वेदिक "एंटीबायोटिक" औषधियाँ (जैसे गंधक रसायन, त्रिकटु, सूक्ष्म त्रिफला आदि) देकर आगे चलकर मुस्तादि यापन वस्ति जैसी पोषक और पुनरुत्थानकारी वस्ति चिकित्सा की जाती है।
विशेषत: यदि मुख कैंसर (Oral Cancer) के कारण मुँह पूरी तरह बंद हो गया हो, रोगी को भूख न लग रही हो, और ऑपरेशन संभव न हो, तो ऐसी स्थिति में मुस्तादि यापन वस्ति एक प्रभावी उपाय है। यह आहार का विकल्प बनकर शरीर को आवश्यक पोषण और औषधीय प्रभाव दोनों प्रदान करता है।
⚠️ ध्यान रहे: जब तक तेज ज्वर बना हुआ है, तब तक कोई भी प्रकार की वस्ति चिकित्सा वर्जित है।
प्रत्येक रोगी की चिकित्सा आरंभ करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि रोग किस प्रकार का है और रोगी की अवस्था कैसी है। केवल लक्षणों के आधार पर औषधि देना पर्याप्त नहीं, अपितु गहराई से रोग के स्वरूप को पहचान कर ही सफल चिकित्सा संभव है। इसके लिए निम्न बिंदुओं पर ध्यान देना चाहिए:
सन्तर्पणजन्य रोग वह होते हैं जो अधिक भोजन, पोषण, और सुख-सुविधाओं के कारण उत्पन्न होते हैं (जैसे – मधुमेह, मोटापा, उच्च रक्तचाप)।
अपतर्पणजन्य रोग अल्प आहार, कमजोरी, कुपोषण या अधिक परिश्रम से होते हैं (जैसे – क्षय, दुर्बलता)।
👉 इनका इलाज भी तदनुसार लघन या बृंहण से किया जाता है।
आमयुक्त स्थिति में पाचन अपक्व होता है, मल-मूत्र दोष युक्त होते हैं और रोग की तीव्रता अधिक होती है।
नीराम अवस्था में आम दोष समाप्त हो चुका होता है, और शरीर औषधि ग्रहण करने योग्य होता है।
👉 आम की उपस्थिति में पहले आमपाचन औषधियाँ देना आवश्यक है।
यदि रक्त दूषित है तो रक्तमोक्षण या रक्तशोधक औषधियाँ आवश्यक होंगी।
यदि मांस धातु दूषित है तो व्रण, गांठ, या शोथ जैसी समस्याएँ होंगी।
👉 धातु की स्थिति जानकर ही चिकित्सा दिशा तय करें।
यदि रोगी गुरु, कफजन्य, भारी लक्षणों से पीड़ित है, तो लघन चिकित्सा दी जाए।
यदि रोगी दुर्बल, क्षीण, और वात प्रधान लक्षणों से ग्रसित है, तो बृंहण चिकित्सा (बलवर्धक) आवश्यक है।
रोगी शारीरिक रूप से बलवान है या दुर्बल?
मानसिक रूप से औषध, चिकित्सा, और जीवनशैली में परिवर्तन को स्वीकारने की स्थिति में है या नहीं?
👉 रोगी की शक्ति और इच्छा के अनुसार औषध और पंचकर्म का चयन करें।
सफल आयुर्वेदिक चिकित्सा के लिए रोग के स्वरूप, आम-निराम स्थिति, धातु दोष, रोगी की बल-स्थिति और मानसिक स्थिति का सम्यक् मूल्यांकन आवश्यक है। तभी सटीक औषध, आहार-विहार और पंचकर्म चिकित्सा का निर्धारण संभव है।
ओष्ठ यानी होंठ, शुक्र धातु से संबंधित एक संवेदनशील क्षेत्र है। कैंसर की सर्जरी या रेडिएशन के बाद यहां विशेष रूप से घाव का उपचार, दर्द शमन, धातु संरक्षण और व्रणरोपण आवश्यक होता है। आयुर्वेद में इसके लिए कई विशिष्ट उपाय वर्णित हैं, जिन्हें चरणबद्ध रूप में नीचे प्रस्तुत किया गया है:
स्रोत: वाग्भट्ट उत्तरतन्त्र 22/1
सर्जरी के तुरंत बाद व्रणरोपण के लिए निम्न औषधियों से बना तेल उपयोगी होता है:
क्रम | औषधि नाम | गुण (स्वभाव) | प्रमुख धर्म / प्रभाव | उपयोग क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
1. | मुलेठी (Yashtimadhu) | मधुर, शीत, स्निग्ध | व्रणरोपण, पित्तशामक, कंठ्य, बल्य | मुख रोग, स्वर भंग, जलन, आंव |
2. | मालकाङ्गनी (Celastrus paniculatus) | तिक्त, कटु, उष्ण | बुद्धिवर्धक, वातहर, शोथहर | स्नायु दुर्बलता, मानसिक कमजोरी |
3. | लोध्र (Symplocos racemosa) | कसैला, शीत | रक्तशोधक, व्रणरोपक, स्तम्भक | रक्तपित्त, घाव, leucorrhoea |
4. | गोरखमुण्डी (Sphaeranthus indicus) | तिक्त, कटु, शीत | शोथहर, मूत्रल, पित्तहर | सूजन, त्वचारोग, विष विकार |
5. | सारिवा (Hemidesmus indicus) | मधुर, शीत, स्निग्ध | रक्तप्रसादक, पित्तहर, त्वकदोषहर | रक्तदोष, फोड़े-फुंसी, जलन |
6. | कमल-पत्र (Nelumbo nucifera) | कषाय, शीत | पित्तशामक, रक्तशोधक, हृदय्य | पित्त विकार, गर्मी जन्य रोग |
7. | परवल (Trichosanthes dioica) | तिक्त, कटु, शीत | दीपन, पाचक, कफ-पित्तहर | मुख विकार, पाचन, त्वचा रोग |
8. | मकोय (Solanum nigrum) | तिक्त, कषाय, शीत | शोथहर, पित्तहर, रक्तशोधक | कैंसर, सूजन, यकृत विकार |
अधिकांश औषधियाँ शीतवीर्य और पित्तहर हैं – इसलिए ये सर्जरी या जलन/रेडिएशन के बाद शीतलता और व्रणरोपण में उपयोगी हैं।
मुलेठी, सारिवा, लोध्र, और मकोय घाव भरने, सूजन कम करने, और रक्त शुद्ध करने में विशेष प्रभावी हैं।
मालकाङ्गनी मनोबल और स्नायविक शक्ति बढ़ाती है, जो कैंसर रोगी के मानसिक बल के लिए जरूरी है।
👉 इनसे सिद्ध तेल बनाकर होंठ क्षेत्र पर अभ्यंग करें।
यदि रोग की प्रकृति पित्तज, रक्तदूषित या घातजन्य (सर्जरी का दुष्परिणाम) है, तो जलौका अवलेपन (leech therapy) द्वारा रक्तशुद्धि व जलन शमन किया जाता है।
👉 अत्यधिक जलन पर भी पुनः जलौका लगाई जा सकती है।
जीवनीय महाकषाय - for Deeply knowledge
जीवनीय गण सिद्ध तेल बलवर्धन, व्रणरोपण, रसायन एवं रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने वाले गुणों पर आधारित है:
जीवक (Malaxis acuminata) – इसका स्वभाव मधुर, स्निग्ध और शीतल होता है। यह रसायन, बल्य और शुक्रवर्धक गुणों से युक्त होती है। इसे शुक्रधातु की कमजोरी, बांझपन और सामान्य थकावट में उपयोग किया जाता है।
ऋषभक (Microstylis wallichii) – मधुर और शीतल गुणों वाली यह औषधि रसायन, वाजीकरण और बलवर्धक है। इसका उपयोग यौन दुर्बलता और शरीर की कमजोरी में किया जाता है।
मेधा (Polygonatum cirrhifolium) – मधुर और गुरु स्वभाव वाली यह औषधि बुद्धिवर्धक, बल्य और रसायन गुणों से युक्त होती है। मानसिक दुर्बलता और स्मृति वृद्धि के लिए उपयोगी है।
महामेधा (Polygonatum verticillatum) – यह औषधि मधुर और शीतल होती है। यह मेधावर्धक और स्तन्यवर्धक मानी जाती है। विशेष रूप से मानसिक थकान और स्त्रियों की कमजोरी में इसका प्रयोग होता है।
काकोली (Roscoea purpurea) – इसका स्वभाव मधुर और शीतल होता है। यह बलवर्धक, रसायन और वात-पित्त शामक होती है। इसे दुर्बलता और वात विकारों में प्रयोग किया जाता है।
क्षीरकाकोली (Fritillaria roylei) – मधुर, स्निग्ध और शीत गुणों वाली यह औषधि बलवर्धक और शुक्रवर्धक है। थकान और वीर्य क्षीणता जैसी समस्याओं में लाभदायक है।
मुदगपर्णी (Vigna radiata) – यानी मूंग के पत्ते। इसका स्वभाव मधुर और शीतल होता है। यह पाचन सुधारक, तृषाहर और बल्य है। इसे अग्निमांद्य और सामान्य दुर्बलता में दिया जाता है।
माषपर्णी (Vigna mungo) – यानी उड़द के पत्ते। इसका स्वभाव मधुर और उष्ण है। यह बल्य, वातहर और शुक्रवर्धक गुणों से युक्त है। विशेषकर वातज विकारों और दुर्बलता में उपयोगी है।
जीवन्ति (Leptadenia reticulata) – मधुर, शीतल और स्निग्ध स्वभाव वाली यह औषधि जीवनवर्धक, स्तन्यवर्धक और रसायन है। थकावट, नेत्रदृष्टि की कमी और स्तन्य वृद्धि के लिए उपयोगी है।
मुलेठी (Glycyrrhiza glabra) – इसका स्वभाव मधुर, शीत और स्निग्ध होता है। यह कंठ्य, व्रणरोपक और बलवर्धक होती है। गले के रोग, अल्सर और स्वरदोष में अत्यंत लाभदायक है।
ऋद्धि (Habenaria intermedia) – मधुर और शीतल स्वभाव वाली यह औषधि वाजीकरण, बल्य और रसायन है। इसका उपयोग यौन बल और शरीर की शक्ति बढ़ाने में किया जाता है।
वृद्धि (Habenaria edgeworthii) – यह भी मधुर और गुरु स्वभाव वाली होती है। बल्य, शुक्रवर्धक और वातहर गुणों से युक्त यह औषधि वीर्यदोष और सामान्य कमजोरी में उपयोगी है।
ये सभी औषधियाँ आयुर्वेद में "जीवनीय" (जीवन शक्ति बढ़ाने वाली) मानी जाती हैं।
मुख्यतः ये औषधियाँ शुक्रधातु, ओजस, बल, और स्मृति को बढ़ाने के लिए प्रयोग होती हैं।
यह गण अष्टवर्ग औषधियों का भी हिस्सा है, जो दुर्लभ और शक्तिशाली माने जाते हैं।
नाक में 2-2 बूँद सुबह-शाम नस्य के रूप में डालें।
जीवनीय‑गण‑सिद्ध‑तेल नस्य के 8 प्रमुख लाभ
क्रम | लाभ | विवरण |
---|---|---|
1️⃣ | मस्तिष्क बलवर्धन | जीवनीय औषधियाँ मेधावर्धक, स्नायु पोषक और ओजवर्धक होती हैं। नस्य द्वारा इनका सीधा प्रभाव ब्रेन टिश्यू और नासिका मर्म पर होता है। |
2️⃣ | शुक्रधातु की रक्षा | ओष्ठ (होंठ) शुक्रधातु का स्थान है, नस्य द्वारा शुक्रक्षय, यौन दुर्बलता, व वीर्य की कमी में लाभ होता है। |
3️⃣ | व्रणरोपण में सहायता | यह घाव भरने की प्रक्रिया को तेज करता है, विशेषकर जब मुख, नाक या कंठ में सर्जरी या रेडिएशन हुआ हो। |
4️⃣ | मानसिक शांति और तनाव-शमन | महामेधा, मेधा, ऋषभक आदि औषधियाँ तनाव, अवसाद और अनिद्रा में बहुत लाभदायक होती हैं। |
5️⃣ | नेत्र रोगों में लाभकारी | नस्य का प्रभाव नेत्र मर्म तक भी जाता है, जिससे दृष्टि शक्ति में सुधार होता है। |
6️⃣ | आवाज और कंठ सुधार | मुलेठी व जीवन्ति जैसे द्रव्य कंठ्य हैं — स्वर सुधारते हैं, गले के कैंसर में भी सहायक हैं। |
7️⃣ | रेडिएशन के दुष्प्रभावों को शमन | यदि रोगी को रेडिएशन हुआ है, तो यह नस्य तप्तता, जलन, सूजन में राहत देता है। |
8️⃣ | ओज वर्धन और रोग प्रतिरोधक क्षमता वृद्धि | नस्य द्वारा जीवनीय औषधियाँ सीधे प्राण व ओज मर्म को बल देती हैं, जिससे रोगी की रिकवरी तेज होती है। |
👉 यह व्रणरोपण, स्नायु पुष्टता, एवं शुक्रधातु संरक्षण हेतु अत्यंत लाभदायक होता है।
क्योंकि ओष्ठ शुक्रधातु का स्थान है, अतः रोगी को निम्न रसायन औषधियों का सेवन कराना चाहिए:
शतावरी चूर्ण + दूध
अश्वगंधा चूर्ण + घी
👉 यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता व ऊतक निर्माण में सहायक हैं।
एरण्ड पत्र + गाय का दूध का पेस्ट बनाएं
इससे पत्र-पोटली बनाकर नाड़ी स्वेदन करें
👉 यह दर्द, सूजन और जकड़न को शांत करता है।
लोध्र + त्रिफला + शहद
👉 इस मिश्रण से व्रण पर लेप करें।
यह घाव को जल्दी भरता है और संक्रमण रोकता है।
रागी की रोटी + गाय का घी
👉 यह आहार शरीर को शक्ति देने के साथ व्रण-शुद्धि और स्निग्धता प्रदान करता है।
यदि होंठ पर सिस्ट या कैंसर गांठ शेष है, तो
👉 स्वर्ण शलाका से अग्निकर्म अनिवार्य माना गया है।
ओष्ठ कैंसर सर्जरी के बाद यदि उपरोक्त आयुर्वेदिक उपायों को क्रमबद्ध रूप से किया जाए, तो घाव शीघ्र भरता है, दर्द व सूजन शांत होती है, और कैंसर पुनः न पनपे इसके लिए शुक्रधातु की रक्षा भी होती है।
दाँत निकालने या कैंसरजन्य दंत घावों की चिकित्सा में आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से विशेष व्रणरोपण, शोथहर और स्नेहन उपचार आवश्यक होते हैं। निम्न उपाय अत्यंत लाभकारी सिद्ध होते हैं:
पेस्ट बनाकर दंत-स्थान पर लगाएं
गण्डूष (मुख में रखकर कुल्ला करें)
👉 मुलेठी व्रणरोपण, शीतलता, और दर्दनाशक गुणों से भरपूर होती है। यह कैंसर से निकले घावों को शीघ्र भरने में सहायता करती है।
गण्डूष द्वारा दिन में 2-3 बार
नस्य रूप में 6-6 बूँदें नाक में डालें
👉 विदार्यादि तेल शोथहर, व्रणरोपण एवं श्लेष्महर है, जबकि पंचक्षीरी तेल मूत्राशय से लेकर मुख-मस्तिष्क तक स्नायु पोषण में सहायक है।
मसूड़ों के कैंसर की अवस्था में जब वहाँ सूजन, स्राव, व्रण, या टीस जैसी समस्याएँ उपस्थित हों, तब आयुर्वेद में 'प्रतिसारण', 'मालिश', और 'नस्य' जैसे उपायों से शोधन, पोषण और व्रणरोपण तीनों को साधा जाता है। आइए इसे चरणबद्ध समझें:
प्रतिसारण यानी दंत-मूल व मसूड़े के क्षेत्र में औषधियों को हल्के दबाव से रगड़ना, ताकि:
दोषों का शोधन हो
स्राव सूखें
ऊतक पुनः सशक्त हों
1 नीम की छाल का चूर्ण (Azadirachta indica) – इसका स्वाद तिक्त, कटु और कषाय होता है तथा स्वभाव से शीतल होती है। यह औषधि रक्तशोधक, कृमिघ्न (कृमिनाशक), व्रणशोधक और शोधन गुणों से युक्त होती है। इसका उपयोग मसूड़ों की सूजन, रक्तस्राव और मुँह के छालों के लिए किया जाता है।
2 त्रिफला (हरड़, बहेड़ा, आंवला) – यह त्रिदोषहर औषधि है जिसमें कषाय, अम्ल और मधुर रस प्रमुख हैं। यह व्रणरोपण (घाव भरने), रक्तशुद्धि तथा दंतमूल की शुद्धि के लिए श्रेष्ठ मानी जाती है। मुंह की दुर्गंध, पायरिया और पुराने घावों में यह अत्यंत उपयोगी होती है।
3 लोध्र (Symplocos racemosa) – यह कषाय रस, शीतल और गुरु स्वभाव वाली औषधि है। इसमें स्तम्भक (रक्तस्राव रोकने वाला), शोथहर (सूजन घटाने वाला) और व्रणरोपक गुण पाए जाते हैं। इसका उपयोग पीरियोडोंटाइटिस, रक्तस्राव और मसूड़ों के घाव में विशेष लाभ देता है।
4 दंती (Baliospermum montanum) – तिक्त, कटु और उष्ण गुणों से युक्त यह औषधि शोधन, व्रणशुद्धि और कृमिघ्न कार्यों में उपयोगी है। कफज विकार और मसूड़ों के स्रावी (pus या discharge) विकारों में यह विशेष प्रभावी है।
5 हरिद्रा (Curcuma longa) – यह औषधि तिक्त, कषाय रस युक्त और उष्ण स्वभाव की होती है। इसमें रक्तशोधक, सूजनहर तथा जीवाणुनाशक गुण पाए जाते हैं। व्रण, अल्सर, सूजन और मुँह की दुर्गंध में यह लाभकारी मानी जाती है।
तगर (Valeriana wallichii) – इसमें कषाय, कटु, तिक्त रस और उष्ण स्वभाव होते हैं। यह वातहर, शूलनाशक और शोथहर औषधि है, जो विशेषकर दर्द, सूजन, जलन और घाव को शुद्ध करने में काम आती है।
ये सभी औषधियाँ शोधन (Cleansing) और व्रणरोपण (Healing) दोनों दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं।
मसूड़े‑कैंसर में इनका प्रयोग प्रतिसारण (रगड़), लेप या गण्डूष रूप में करें।
नीम, लोध्र, हरिद्रा में प्राकृतिक एंटीसेप्टिक गुण होते हैं जो संक्रमण को रोकते हैं।
इनका चूर्ण या क्वाथ बनाकर हल्के ब्रश या ऊँगली से दिन में 2-3 बार मसूड़ों पर रगड़ें।
मधुर गुण की औषधियाँ पोषक, शोथहर और रसायन होती हैं। जब उन्हें घृत में पकाया जाए, तो वे:
मसूड़ों को पोषण देती हैं
दर्द, टीस और सूजन में राहत देती हैं
ऊतक का पुनर्निर्माण करती हैं
👉 उपयुक्त औषधियाँ (मधुर-गण):
क्रम | औषधि नाम | गुण (स्वभाव) | प्रमुख धर्म / प्रभाव | उपयोग क्षेत्र |
---|---|---|---|---|
1️⃣ | शतावरी (Asparagus racemosus) | मधुर, गुरु, शीत, स्निग्ध | रसायन, बल्य, स्तन्यवर्धक, व्रणरोपक | घाव, कमजोरी, कैंसर पश्चात पोषण, शुक्रधातु |
2️⃣ | जीवन्ति (Leptadenia reticulata) | मधुर, शीत, स्निग्ध | जीवनवर्धक, दृष्टिवर्धक, बल्य, रसायन | दुर्बलता, नेत्र रोग, व्रण, जलन |
3️⃣ | मुलेठी (Glycyrrhiza glabra) | मधुर, शीत, स्निग्ध | कंठ्य, व्रणशोधक, शोथहर, बल्य | मुख रोग, स्वरदोष, अल्सर, दंत व्रण |
4️⃣ | यष्टिमधु (Glycyrrhiza glabra) | (मुलेठी का ही दूसरा नाम) | मधुर, शीत, स्निग्ध | कंठ्य, व्रणरोपण, वात-पित्तहर |
5️⃣ | दूधिया वृक्षों का क्षीर (उदाहरण – अर्क, आक, रबर का पेड़) | स्निग्ध, मधुर/तिक्त, उष्ण या शीत (वृक्ष पर निर्भर) | व्रणरोपण, रसायन, शोथहर | पुराना व्रण, त्वचा विकार, सूजन |
ये औषधियाँ मुख और मसूड़े कैंसर जैसी स्थितियों में जब ऊतक क्षय हो, तो मालिश, नस्य, लेप और गण्डूष के रूप में उपयोग की जाती हैं।
इनसे बना सिद्ध घृत या तेल, शुक्रधातु और ओजस को भी बढ़ाता है, जिससे रोगी की रिकवरी क्षमता तेज होती है।
इनसे घृत सिद्ध कर:
दिन में एक बार मसूड़ों पर मालिश करें
2-2 बूँद नस्य के रूप में नाक में दें
नस्य से शिरः और मुख के ऊर्ध्व अंगों को बल मिलता है।
- लाक्षादि चूर्ण – विवरण एवं गुणधर्म चार्ट
घटक औषधियाँ | प्रमुख गुण | प्रभाव / उपयोग |
---|---|---|
लाक्षा (लाख) | स्तम्भक, रक्तवर्धक, व्रणरोपक | घाव भरने, रक्तस्राव रोकने |
लोध्र | कषाय, शीतल, स्तम्भक | मसूड़ों की सूजन, रक्तस्राव |
कट्फल | कषाय, तीक्ष्ण, रुक्ष | शोथहर, कफहर, व्रणशोधक |
हरिद्रा (हल्दी) | तिक्त, उष्ण, रक्तशोधक | सूजन, संक्रमण, व्रणशुद्धि |
मुलेठी | मधुर, शीत, बल्य | व्रणरोपक, मुँह के रोग, जलन शांत |
उपयोग विधियाँ (Usage Methods):
विधि | कैसे करें | लाभ |
---|---|---|
प्रतिसारण (रगड़) | चूर्ण को ऊँगली से मसूड़ों या दंतमूल पर रगड़ें | रक्तस्राव, सूजन, व्रण में राहत |
लेप | चूर्ण को शहद या त्रिफला क्वाथ में मिलाकर घाव पर लगाएं | व्रणरोपण व संक्रमण नियंत्रण |
गण्डूष | त्रिफला या लोध्र क्वाथ में मिलाकर मुख में रखें | दंत-मालिग्नेंसी, मसूड़े घाव |
लाक्षादि चूर्ण एक प्राचीन सिद्ध योग है जिसका प्रयोग विशेषतः:
मसूड़ों की रक्तस्राव समस्या
दंतमूल के विकार
स्रावी कैंसर घावों
में किया जाता है।
उपयोग विधि:
चूर्ण को शहद या त्रिफला क्वाथ में मिलाकर
मसूड़ों पर हल्के हाथ से रगड़ें
दिन में 2 बार करें
यह शोथ, स्राव और दर्द तीनों में लाभदायक होता है।
मसूड़े-कैंसर की अवस्था में आयुर्वेदिक चिकित्सा का उद्देश्य है –
🔹 दोषों का शोधन,
🔹 ऊतकों का पोषण,
🔹 और घाव का व्रणरोपण।
कटु-तिक्त रसों से शोधन,
मधुर-घृत से पोषण,
लाक्षादि चूर्ण से व्रण सुष्टि — यह त्रिस्तरीय चिकित्सा पद्धति रोग की गहराई से चिकित्सा करती है।
गिलायु एक गंभीर रोग है जो आधुनिक चिकित्सा में "जिह्वा (Tongue) कैंसर" के रूप में जाना जाता है। आयुर्वेद में इसका उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में विभिन्न दृष्टिकोणों से किया गया है।
इन समस्त श्लोकों का गहन अध्ययन कर हर एक प्रकार के मुख-कैंसर में विशिष्ट चिकित्सा योजना बनानी चाहिए।
दोषानुसार चिकित्सा (वात, कफ, रक्त etc..)
लेपन, गण्डूष, नस्य, अग्निकर्म (आवश्यकता अनुसार)
जीवनीय, रक्तशोधक, शोथहर औषधियों का उपयोग
सर्जरी के बाद व्रणरोपण सिद्ध तेलों, घृत और स्वर्ण शलाका द्वारा चिकित्सा
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